गुरु नानक साहिब की प्रेम-भक्ति का शिखर
एक बार की बात है कि एक दिन मुँह अंधेरे, परिवार वालों को मालूम हुआ कि उनका बालक घर से गायब है। उस समय इस बालक की आयु पाँच वर्ष से भी कम थी। गाँव के अंदर आस-पड़ोस में देखने के उपरान्त परिवारजन कुछ बुजुर्गों को साथ ले कर गाँव से बाहर ढूँढने निकल पड़े। किसी ने यह भी बताया कि इस बालक ने आधी रात 12 बजे इस कुएँ पर स्नान किया था तथा उन्होंने देखा कि बालक कुएँ की मुंडेर पर समाधि लगा कर प्रभु के चरणों में तल्लीन था। इस पूर्ण एकान्त में चैकड़ी लगाए वह बालक तीन घण्टों से समाधि में लीन था। नींद के एक हल्के से झोंके से यह बालक कुएँ में गिर सकता था। यह विस्मयकारी था कि बालक ने इसी स्थान को समाधि के लिए चुना था।
ऐसा प्रतीत होता था, जैसे धु्रव भक्त अपने ऊँचे रूहानी तख्त से उतर कर, फिर भक्ति व घोर तपस्या के लिए एक छोटे बालक का रूप धारण कर के आ गए हों। अन्तर केवल इतना ही था कि अब उसे सारी आयु भक्ति में व्यतीत करनी थी। बुजुर्गों ने उसे गहन आनंद और प्रभु-भक्ति में लीन पाया। वे चुपके से उसके पास गए। कहीं यह बालक अचानक गहरे कुएँ में गिर न जाए, इस डर से उन्होंने उस बालक को उठा लिया। जब उस प्रभु-स्वरूप बालक से यह पूछा गया कि उस ने भक्ति करने के लिए कुएँ की मुंडेर को ही क्यों चुना, जिससे नींद आने पर उसके जीवन को खतरा हो सकता था, तब उस बालक ने उत्तर दिया, “अगर गुरुनानक साहिब की प्रेम-भक्ति करते हुए समाधि में नींद आ जाए, तब तो इस जीवन की अपेक्षा कुएँ में गिर कर मर जाना ही बेहतर होगा।”
इस पवित्र बालक के भीतर प्रभु की भक्ति करने की इतनी अथाह इच्छा व उत्सुकता थी! ये छोटी आयु में रूहानी जागृति के चिन्ह ही थे कि पाँच साल की छोटी आयु में ही इस आध्यात्मिक सिंह में इतनी दृढ़ता और निश्चय का भाव था।
वास्तव में यह आश्चर्य की बात है कि पाँच वर्ष का एक बालक, जिस को कभी किसी साधु-संत या किसी अन्य के पास आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली हो, वह रूहानी प्यास को बुझाने के लिए तन-मन को इस प्रकार न्यौछावर कर रहा था। आध्यात्मिक साहित्य में इस प्रकार का कोई अन्य उदाहरण नहीं है। इतनी छोटी आयु में श्री गुरु नानक साहिब के लिए इतनी श्रद्धा का उत्पन्न होना मनुष्य-शक्ति से परे की एक अद्भुत घटना है। बहुत से साधु-संत तो अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रभु पर इतना गहरा विश्वास पैदा नहीं कर सके थे। स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था कि कोई दिव्य भक्ति ही इस पवित्र बालक के रूप में प्रकट हो गई थी।
इस प्रकार चैकड़ी लगा कर गहरी समाधि में लीन, अज्ञेय को पाने के निश्चय के साथ ही उन्होंने निद्रा, मृत्यु, सांसारिक आकर्षणों, सुविधाओं व सुखों पर जीत प्राप्त कर ली थी। आप हँसने-खेलने, खाने जैसे सांसारिक सम्बन्धों व लालचों से बिल्कुल बेखबर थे। आप किसी से बात भी नहीं करते थे। आप सदैव प्रभु-भक्ति में ही गहरी डुबकी लगाते रहते थे। कोई सांसारिक वस्तु उन्हें आकर्षित नहीं करती थी। ऐसे थे बाबा नंद सिंह जी महाराज। उन की तरह कोई और नहीं हो सकता। दिव्य प्रेम का अवतार होने के कारण यह बालक मौत, निद्रा तथा सुख-सुविधाओं से निरपेक्ष रह कर प्रभु के प्रेम-सागर में डुबकियाँ लगा रहा था। इस घटना के उपरान्त उनका परिवार सावधान रहने लगा। परन्तु जब भी वे रात को देखने हेतु उठते, तो इस बालक को उनके आध्यात्मिक उपदेशक बाबा हरनाम सिंह जी महाराज की तरह चारपाई पर बैठे हुए गहरी समाधि में लीन पाते थे।
वह अपने जीवन में कभी भी नहीं सोये। किसी ने उन्हें सोते नहीं देखा था। उन्होंने बचपन में ही नींद पर काबू पा लिया था। हर समय प्रभु-भक्ति में लीन रहने वाले सच्चे ब्रह्मज्ञानी को नींद की कोई इच्छा व आवश्यकता नहीं होती। गुरु अर्जुन पातशाह ‘सुखमनी साहिब’ में कहते हैं-बाबा नंद सिंह जी साहिब जन्म से ब्रह्मज्ञानी व महापुरुष थे। बाबा नंद सिंह जी महाराज सदैव रूहानी आनंद में डुबकियाँ लगाते रहते थे। वे सदा उच्च आध्यात्मिक आनंद पर स्थापित रहते थे। ये तो सांसारिक लोग ही होते हैं, जो अपनी नींद व भूख की संतुष्टि के लिए अमूल्य जीवन गंवा देते हैं।
बचपन की इन अनोखी घटनाओं में श्री गुरु नानक साहिब जी के पुनर्जन्म की इलाही शान झलकती है। इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं थी कि श्री गुरुग्रंथ साहिब जी की इलाही शान की पुरातन पवित्रता व शोभा का यशोगान करने के लिए श्री गुरुनानक साहिब की दिव्य शक्ति बाबा नंद सिंह जी महाराज के रूप में प्रकट हो गई थी।
इस समय इस पवित्र बालक की आध्यात्मिक चमक छुपे रूप में विचरण कर रही थी। यह घटना रूहानी तप-तेज (शोभा) की एक झलकी है, जिसकी अलौकिक शक्ति उन के भाग्यशाली जीवन का निर्माण कर रही थी। महान् उद्देश्य और लक्ष्य बाल्य-काल से ही स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था।
बाबा जी के बचपन के ऊपर लिखी गई घटनाओं से यह भली प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि बाबा नंद सिंह जी साहिब पवित्र योग व वैराग्य की महान् मूर्ति थे। उन के बाद के जीवन की पवित्र घटनाओं से पता चलता है कि उन्होंने ‘त्याग’ सहित सब कुछ छोड़ दिया था। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में न तो किसी वस्तु का लालच किया और न ही वे किसी सांसारिक वस्तु पर निर्भर रहे। ऐसा त्याग अपने आप में एक उदाहरण है। आप जन्म से ही त्यागी व प्रभु-प्रेमी सत्पुरुष थे। बाल्यकाल से उनके भीतर एक ही अभिलाषा थी- वह थी अपने प्रिय सतगुरु श्री गुरुनानक देव जी के प्रत्यक्ष दर्शन करने की। वह सांसारिक मोह त्याग कर सिर्फ श्री गुरुनानक साहिब जी की आराधना में दिन व्यतीत कर देते थे। अपने बाल्य-काल से ही उन्होंने प्रभु गुरुनानक साहिब के प्रति अथाह प्रेम की पवित्र भावना पर सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। (यह वर्णन हमें भाई रत्न सिंह जी कलेराँ से प्राप्त हुआ है। भाई रत्न सिंह जी हजूर बाबा नंद सिंह जी महाराज के अनन्य श्रद्धालु थे तथा जीवन भर उन की सेवा में उपस्थित रहे।)
गुरमुखि अंतरि सहज है
मन चड़िया दसवै आकासि॥
तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु॥
नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु॥
गुरु अमरदास जी ने गुरमुख की सहज अवस्था वाली आत्मिक अवस्थाओं के बारे बतलाया है।
इस अवस्था में नींद व भूख नहीं सताती। जीव प्रभु के नाम की अमृत-फुहार में नित्य भीगता रहता है। गुरमुख प्रभु-कृपा के मण्डल में रहता है।
उस गुरमुख को दुःख-सुख प्रभावित नहीं करते जिस की आत्मा सदैव आध्यात्मिक आभा से प्रफुल्लित रहती है।
एक सच्चे संत की आत्मा ‘अमृत नाम’ के आनंद से जुड़ी रहती है, उनकी आत्मा प्रभु की आभा से खिली होती है। वह प्रभु में सदा के लिए लीन हो जाती है। जिस प्रकार प्रभु नींद व भूख से ऊपर है, उसी तरह इस के साथ एकरूप हुआ गुरमुख भी इसी अवस्था में रहता है। प्रभु दुःख-सुख से परे है। इसी तरह उस में लीन वह गुरमुख, जिस की आत्मा में अलौकिक प्रकाश हो चुका हो, सतत आनंद की अवस्था में रहता है। उसको कोई दुःख-सुख व्याकुल नहीं करता।
प्रभु में सदा के लिए लीन, सच्चे व पूर्ण भक्त, शारीरिक सुखों से ऊपर उठ चुके होते हैं। नींद व भूख, प्रसन्नता व संताप, सुख व दुःख उन क समीप नहीं आते और न ही उन की शान्त अवस्था में ये बाधा डालते हैं। बाबा हरनाम सिंह जी महाराज व बाबा नंद सिंह जी महाराज जन्म से ही प्रभु-भक्ति में लीन रहते थे।
अमृत-नाम और आत्मप्रकाश के परम वरदान हैं- चरम संतुष्टि, पूर्णता और सब कुछ को समाहित करने वाली अवस्था। इस निराली व स्वावलम्बी आनंदस्वरूप अवस्था में नींद या भूख, प्रसन्नता या संताप सुख या दुःख के लिए कोई स्थान नहीं होता।
नाम-रस व आत्म-रस का आनंद स्वयं में पूर्ण है। इस परम आनंद से आत्मा को मिलने वाले दिव्य आहार की तुलना भोजन, भौतिक निद्रा और आराम से तो रंच मात्रा भी नहीं हो सकती।
ऐसा गुरमुख भ्रम के दलदल से पहले ही पार जा चुका होता है। उस अवस्था में माया उस को मोहित नहीं कर सकती क्योंकि वे माया का पर्दा उठा चुके होते हैं।
नाम-रस की पिपासा आत्म-रस की भूख और प्रेम-रस की सच्ची ललक से सभी सांसारिक भूखों व तृष्णाओं का पराभव हो जाता है।
सत्य मार्ग पर चलने वालों को जीवन के पोषण के लिए भोजन व नींद के कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। स्वाद की तृष्णा व इन्द्रिय-सुखों पर विजय प्राप्त करने के लिए लम्बा जीवन और कई बार तो कई-कई जीवन व्यतीत करने पड़ते हैं। एक बार शमन करने पर भी ये तृष्णाएँ घात लगाए रहती हैं। मन में दुबकी रहती हैं और बाद में भक्ति में विघ्न डालती हैं। केवल गुरमुख ही या गुरु की कृपा से जिज्ञासु बना भक्त ही, इन को सदा के लिए काबू करके नाम-रस का तथा आत्म-रस का आनंद प्राप्त कर सकता है।
गुरमुख के मुख-मंडल पर नाम-रस और आत्म-रस की सहजता और आनंदानुभूति का प्रतिबिम्ब शांति एवं निर्मलता के रूप में रहता है। एक सच्चे साधक के मन से यह भाव सांसारिक तृष्णाओं को मिटा डालता है। सत्पुरुषों के चेहरों पर दिव्य प्रकाश की अनोखी शक्ति चमकती रहती है।
जब कोई जिज्ञासु (संत) एक बार इस परम पद की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, फिर यह अवस्था कभी कम नहीं होती, अपितु प्रभु-प्रीतम में अभेदता की यह अवस्था स्थायी बनी रहती है।
सूर्य कभी डूबता नहीं है। इसी प्रकार सच्चे गुरमुख के हृदय में नाम-रस तथा आत्म-रस का प्रकाश सदैव बना रहता है। नाम-रस का स्वाद लेने वाले व आत्मा के सरोवर में नित्य प्रति डुबकियाँ लगाने वाले गुरमुख सदैव जाग्रत अवस्था में रहते हैं, जब कि सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहने वाला मनुष्य वास्तविक रूप में सोया हुआ होता है तथा आत्मिक दृष्टि से मृत होता है।