दीर्घ साधना
एक बार हजूर बाबा हरनाम सिंह जी महाराज ऊना शहर आए हुए थे। बेदी साहिब को किसी सेवक से यह जानकारी मिली कि शहर से बाहर एक संत आए हुए हैं, उन्होंने चेहरा ढाँप रखा है व ऊपर चादर ली हुई है। बेदी साहिब इस रहस्य को समझ गए और अपने सेवकों सहित भोजन व अन्य पदार्थ ले कर वहाँ गए। उन्होंने बाबा जी के विश्राम तथा समाधि के लिए एक कुटिया बनाने का निवेदन किया तथा कुछ सेवक श्री बाबा जी की सेवा के लिए रखने की इच्छा प्रकट की। बाबा जी ने बड़ी नम्रता से यह सब अस्वीकार कर दिया। उन्होंने आबादी से बाहर के किसी ऐसे एकांत स्थान के विषय में पूछा जो दीर्घ और निर्बाध तपस्या के अनुकूल हो। बेदी साहब ने कहा कि इस प्रकार का स्थान तो है पर वह यहाँ से काफ़ी दूर है। उन्होंने इस स्थान पर पहुँचने का सारा रास्ता भी बता दिया। बाबा जी उसी स्थान के लिए चल पड़े। कई दिन की यात्रा के बाद वे उस स्थान पर पहुँच गए। इस के आस-पास पहाड़ियाँ थीं और पास में ही जल-स्रोत बह रहा था। बाबा जी ने इसके किनारे घनी छाया वाले वृक्ष के नीचे अपना आसन लगा लिया। यह तपस्वी इसी स्थान पर एक वर्ष तक समाधि में लीन रहे। एक बार समाधि से उठे तो दो वर्ष के लिए पुनः लीन हो गए और फ़िर एक बार अपनी आनंदमयी समाधि खोली तथा फ़िर दो वर्ष के लिए समाधिस्थ हो गए। बाबा नंद सिंह जी के स्वामी बाबा हरनाम सिंह जी महाराज ने इस एकान्त स्थान पर लगातार तथा निर्विघ्न पाँच साल तक समाधि में रहने के उपरान्त उस स्थान को छोड़ दिया था।
बाबा हरनाम सिंह जी महाराज ‘तप’ की मूर्ति थे। उनके मुखमण्डल से निकलते ‘तप’ व नूर की आभा सांसारिक प्राणियों के लिये तो असह्य थी ही, बड़े-बड़े साधु व फ़कीर भी इस तप-तेज को सहन नहीं कर सकते थे।
बाबा हरनाम सिंह जी महाराज जन्म से ही आध्यात्मिक सम्राट् थे। आप बचपन से ही समाधि में लीन रहते थे। उनकी आत्मिक सम्मोहन की इस निरंतर समाधि में उन्हें कुछ भी विचलित नहीं करता था- न चिलचिलाती धूप, न कड़ाके की सर्दी, न भोजन की चाह, न सुख-सुविधाओं की कामना और न ही कोई यातना। वे इस भौतिक संसार के दूसरे भावों से बहुत ही ऊपर थे क्योंकि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार उनके समीप नहीं आते थे।