शरणागत होने में हमारी ओर से देरी है
गुरु नानक की कृपा-करुणा-क्षमा में कोई देरी नहीं
जो भी व्यक्ति सतगुरु की पवित्र शरण में आता है, गुरु के चरण-कमलों में अपने-आप को पूर्णतया समर्पित कर देता है, वास्तव में तो गुरु उसे स्वीकार कर चुका होता है, उसे अपना बना चुका होता है।
एक सिख, जो अपने गुरु को कभी भूलता नहीं, गुरु भी उसे कभी नहीं भूलता। जो सिख सतगुरु से सच्चा प्रेम करता है, सतगुरु उसे कितना प्यार करते हैं, इसका अनुमान वह नहीं लगा सकता। गुरु का सिख जैसे ही गुरु के पवित्र चरणों में झुकता है, सतगुरु ने तो पहले सह ही उसे अपने कर-कमलों में लिया होता है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति परमात्मा का सहारा लेता है परमात्मा स्वयं ही अपनी कृपा से उसे मालामाल कर देते हैं।
हुकमि मंनिऐ पाईऐ।।
तन-मन-धन अपने प्रिय सतगुरु को अर्पित करते हुए उनकी इच्छा व आदेश को मानकर ही सतगुरु की प्राप्ति हो सकती है।
सतगुरु की खुशी व प्रसन्नता के लिए प्रसन्न मन से उनके आदेश का पालन करने से मनुष्य ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने की पात्रता पा लेता है। जब कोई व्यक्ति अपने अहम् और अपनी तर्क-बुद्धि का त्याग करके इन्हें अपने सतगुरु के पवित्र चरणों में रख देता है तो उसका समूचा व्यक्तित्व अपने सच्चे स्रोत सतगुरु में विलीन होकर एक हो जाता है। दैवी इच्छा सतगुरु की इच्छा सरीखी प्रतिष्ठित है। श्री गुरु नानक साहिब जी को ऐसे त्याग की प्रतीक्षा रहती है। बाबा नंद सिंह जी महाराज ने एक बार फ़रमाया था-
श्री गुरु नानक साहिब जी के पवित्र चरणों में नतमस्तक होकर शरण लेने में हमारी ओर से ही देरी होती है किंतु अपने दैवी पहलू में ले लेने और हमारी अनगिनत भूलों को क्षमा कर देने में उनकी ओर से कोई देरी नहीं होती।
सच बात तो यह है कि हमसे ज्यादा हमें गुरु ढूँढता है- आओ, हम अपने आपको गुरु ग्रंथ साहिब जी के चरण-कमलों में समर्पित कर दें, फिर हम भी गुरु नानक साहिब की दैवी बख़्शिश को प्राप्त कर लेंगें।सतिगुरु कोटि पैंडा आगे होइ लेत है।।
ईश्वर स्वरूप गुरु अपने पवित्र पहलू में समेट लेने के लिए बाहें फैलाए हमारी प्रतीक्षा करते हैं।
‘पाँच प्यारों’ का त्याग सम्पूर्ण था। सर्वांगपूर्ण और मुक्त था। यह त्याग सम्पूर्ण और निस्संकोच था। आत्मिक आनंद और प्रसन्नता के साथ उन्होंने अपने परम प्रिय श्री गुरु गोबिन्द साहिब जी के पवित्र चरणों में अपने आप को अर्पित कर दिया था। बिना किसी बाधा, शर्त, मांग और हिचकिचाहट के उन्होंने अपने आप को गुरु को अर्पित कर दिया था। उन्होंने अपनी कोई पहचान नहीं बनायी थी, क्योंकि वह तो पहले ही अपने गुरु के हो चुके थे। इसलिए उन्होंने अपने शीश गुरु के चरणों में अर्पित कर दिए। वे प्यार और समर्पण के प्रतीक थे। श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ही उनके एकमात्र प्रियतम थे। श्री गुरु गोबिन्द साहिब जी के ‘प्यारे’ होकर वे पाँचों अनन्तकाल तक अमर होकर चमक रहे हैं।
पूर्ण रूप से त्याग करने का यही महत्व है। पूर्ण और सच्चे त्याग में ‘दो चित्त’ होकर आधा समर्पण नहीं किया जा सकता। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं रहता, जिसे हम अपना कह सकते हैं, क्योंकि ‘अहम् सहित स्वयं को’ सम्पूर्ण रूप से त्यागकर हमने अपने आपको प्रियतम गुरु को अर्पित किया हुआ होता है।