गुरु-चेतना का विकास
सर्वदा सतगुरु को देखना चाहिए। अपने सतगुरु पर तब तक अपनी दृष्टि केन्द्रित करें जब तक हम अपने अन्तर्मन में हर एक इन्सान में तथा हर एक स्थान पर परमात्मा के स्वरूप को देखना आरंभ न कर दें। सतगुरु पर हमेशा ध्यान केन्द्रित करने से आँखें भी दिव्य बन जाती हैं और फिर प्रत्येक स्थान और प्रत्येक प्राणी में सतगुरु को देखना शुरु कर देती हैं। बाहरी तथा आन्तरिक ज्ञान भी दिव्य हो जाता है। तब दिल और दिमाग़ पूरी तरह प्यारे गुरु की भक्ति और सेवा में पूरी तरह समर्पित हो जाता है।
परमात्मा की दिव्य महिमा और दिव्य नाम का गान और जाप करो। पवित्र कीर्तन और दिव्य नाम जपने से ईश्वरीय रुझान में वृद्धि होती है।
पवित्र गुरबाणी और कीर्तन का हम श्रवण करें। पवित्र भजनों के दिव्य संगीत और लय को सुनें।
वही भोजन और जल ग्रहण करें जिसे पहले सतगुरु के लिए परोस कर पवित्र कर लिया गया हो। इस को ‘विवेकी’ प्रसाद कहते हैं। सतगुरु को अर्पित किए गए भोजन को खाने से प्रेम, श्रद्धा और भक्ति में वृद्धि होती है। इस पवित्र प्रसाद से बुद्धि पूरी तरह स्वच्छ और निर्मल हो जाती है। यह प्रसाद अर्न्तमन को पवित्र कर देता है।
सदा सतगुरु की गोद का आनंद लेना चाहिए। उसी प्रकार जैसे किरण सूर्य में विश्राम करती है। सोते समय परमात्मा को प्रेमपूर्वक याद करें और सुबह नींद खुलते ही उसके चरण-कमलों का ध्यान करते हुए उसके दिव्य नाम का स्मरण करें। सोते और जागते समय हमेशा परमात्मा को याद करें। इस प्रकार पूरी नींद पवित्र हो जाती है। जिस प्रकार बूंद सागर में और किरण सूर्य में विश्राम करती है। उसी तरह सतगुरु की गोद में विश्राम करें और सोयें। एक समर्पित बच्चे की तरह प्यारे सतगुरु की दिव्य गोद में सोयें।
सोते और जागते समय सतगुरु का ध्यान करना कभी न भूलें।
स्नान करते समय ध्यान मग्न होकर प्यारे गुरु के चरणामृत के पवित्र अमृत-सरोवर में डुबकी लगाएं।
इस प्रकार सभी इन्द्रियों और शरीर को प्यारे सतगुरु के ध्यान और सेवा में लगायें।
हमें अपने शरीर को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की पवित्र सेवा और धार्मिक स्थानों की पवित्र यात्रा में व्यस्त रखना चाहिए।
ऐसे सौभाग्यशाली गुरमुख, गुरु-चेतना में देखते, सुनते, बोलते, खाते-पीते, सोते और सेवा करते हुए रहते है। यह कितनी आनंददायक अवस्था होती है। वे गुरु चेतना में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने रूहानियत में एक गहरी डुबकी लगा ली होती है। एक सच्चा सिख अपने जीवन का हर श्वास गुरु चेतना में लेता है।
गुरु पर अपना-आप न्यौछावर करने की यही एक युक्ति है कि हम गुरु को अपना तन, मन और धन अर्पित करके उसकी आज्ञा में ही रहें।
बेकार और फ़ालतू की बातों में जाने-अनजाने कई पाप हो जाते है। चुग़लख़ोरी, झूठ या बेकार की बेतुकी बातें कीमती श्वासों कों बर्बाद करती है। जितना संभव हो कम बोलें। फ़िजूल की बातों से ही निन्दा जन्म लेती है। जिससे दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है।
आध्यात्मिक विकास के लिए विवेकशील मौन बहुत ही फलदायक है। एक शांत मन सरलता से परमात्म में ध्यानस्थ हो जाता है।