सच्ची प्रार्थना (सच्चा सिमरन)
there is only the worshipped.
सच्ची प्रार्थना एक ऐसी दैवी नदी है, जहाँ सिख के नम्र व तड़पते हृदय में से प्रिय सतगुरु जी के चरण-कमलों के लिए प्रिय बाबा जी के लिए प्रेम का एक शक्तिशाली प्रवाह बहता है। एक पवित्र व सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना अपने प्रिय सतगुरु के साथ प्रेम के सच्चे बंधनों को जोड़ती है। निष्कपट हृदय से की गई प्रार्थना कभी भी अनसुनी या व्यर्थ नहीं जाती। यह प्रार्थना सदैव पूरी होती है।
सच्ची प्रार्थना सतगुरु जी के चरणों में पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण अधीनगी की प्रक्रिया है। यह हृदय की पूर्ण विनम्रता से निकलती है। ‘मैं’ व अहं बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं। अपने ‘व्यक्तित्व’ का भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। केवल विनम्रता, अस्तित्वहीनता, तथा गरीबी ही प्रधान होती है। अहं की पूर्ण अनुपस्थिति से प्रभु के साथ सीधा रूहानी प्रवाह स्थापित हो जाता है। इस प्रवाह से आत्मा को रूहानी कृपा व परम आनंद प्राप्त होता है तथा प्रभु की प्यासी आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है। जितनी अधिक विनम्रता होगी, उतनी ही अधिक इस प्रवाह की शक्ति होगी। आराधना की इस प्रक्रिया में एक सेवक सतगुरु जी के चरण-कमलों में जुड़ जाता है। वह मनभावन फल प्राप्त करता है। उस की सभी कामनाएँ व विचार समाप्त हो जाते हैं। वह केवल सतगुरु जी की उपस्थिति ही चाहता हैं। उसके पश्चात् वह सांसारिक सुखों व पदार्थों के विषय में कभी आराधना नहीं करता।
देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख।।
अहं की अनुपस्थिति में सच्चे आनंद की प्राप्ति होती है। यह सच्चा आनंद गुरु के चरण-कमलों में अहं का पूर्णतः त्याग करने से हुए खाली स्थान को रूहानियत से भरता है। अहं त्याग देने से अन्य कोई आकांक्षा नहीं रह जाती, सभी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं। सतगुरु सच्चे पातशाह की मधुर इच्छा व नाम तन तथा मन के भीतर निवास करने लगते हैं।
भौतिक लोभ-लालच एवं लालसाओं से आराधना को दूषित नहीं करना चाहिए। प्रार्थना में व्यापारिक प्राप्तियों की चाह या लाभ-हानि की बात नहीं करनी चाहिए।
निश्चित रूप में प्रभु को धन व अन्य पदार्थों की आवश्यकता नहीं- वह तो इन दातों को बाँटता है।