मन तू ज्योति स्वरूप है
अपना मूल पहचान
अपना मूल पहचान
मन की सच्ची पहचान शरीर से नहीं होती। मन का यह तर्क कि ‘मैं शरीर हूँ’ ग़लत है। इसकी सही पहचान ज्योति स्वरूप आत्म-तत्त्व error से होती है। यह उसी ज्योति का प्रतिबिम्ब है और यही इसकी असली पहचान है। मन की रोशनी का òोत यही ज्योति है। ज्योति के प्रज्वलित होने से, इसकी चिंगारी से मन सजीव और क्रियाशील हो जाता है। दिव्य और पवित्र ज्योति से ही मन सजीव रहता है। एक पवित्र मन ज्योतिस्वरूप आत्म में विश्राम करता है, जहाँ साधारण मन का किसी की प्रकार पहुँच संभव नहीं। इसकी अपनी पहचान, अपने अस्तित्त्व के असली òोत आत्मा, उसकी दिव्य शान्ति और आनंद में समा जाती है।
काला होआ सिआहु।।
इस जन्म और पूर्व जन्म में किये गये अनगिनत पापों की मोटी काली पर्ते जब-तक इस मन से धुल नहीं जातीं, यह मन आत्मज्योति के असली प्रकाश को कैसे प्राप्त कर सकता है? जब मन पर पड़ी हुई काली मोटी पर्तें धुल जाती हैं, यह पारदर्शी बन जाता है और ज्योति को दर्शाना शुरु कर देता है। यह साफ हो जाता है और एक साफ-स्पष्ट शीशे की भाँति ज्योति की शान को दर्शाता है। मन स्वयं ज्योति स्वरूप हो जाता है।