मृत्यु को सदा याद रखो
जो मनुष्य मृत्यु को सदा ध्यान में रखता है, केवल वही इस जीवन में मिले गिने-चुने श्वासों की सम्पत्ति के मूल्य को जानता है। एक बार दशमेश पिता श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब के दरबार में एक राजा आया। राजा ने कुछ समय के लिए इलाही दरबार का आनंद लेने के उपरान्त अति सुन्दर व शूरवीर योद्धा- दशमेश गुरु जी को एक सीधा प्रश्न कर दिया कि संगत में सुन्दर औरतों की उपस्थिति मनुष्य के विचारों पर क्या प्रभाव डालती है? गुरु जी ने बड़े धैर्य से उस का प्रश्न सुना। सुनकर राजा से कहा कि आज से सातवें दिन तेरी मृत्यु हो जाएगी। जाओ, जाकर अपने सांसारिक कार्य पूरा कर लो। अन्य जो आनंद प्राप्त करने हैं, प्राप्त कर लो ताकि सुख से मृत्यु को प्राप्त होओ। जब सातवाँ दिन आया तो उसने मृत्यु-पूर्व गुरु जी के दर्शन करने के लिए प्रार्थनाएँ प्रारम्भ कर दीं। गुरु जी ने दर्शन दिए और उससे कहा कि क्या उसने दैहिक इच्छाएँ भोग ली हैं। राजा फूट-फूट कर रोने लगा तथा कहने लगा कि उसके शरीर पर मृत्यु का भय मँडराते रहने के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार उसके समीप ही नहीं आए। यह सुनकर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने कहा: “सच्चा सिख मृत्यु को सदा याद रखता है। गुरु जी की पवित्र संगत में काम, क्रोध आदि उसके समीप नहीं आ सकते। मृत्यु का विचार ही अमर जीवन-प्राप्ति के लिए एक कुंजी है। यह हमारे जीवन में अजर अमर जीवन का आनंद जगाता है।”
यह शरीर हमारे जीवन की आधार-जोत का एक प्रतिबिम्ब है, सांसारिक व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन अज्ञानता में रहते हैं, फलस्वरूप वह सारे जीवन की आधार शक्ति से अनजान व बेखबर रहते हैं। वह अपने नश्वर शरीर, उच्च ज्ञान तथा मन के अहंकार की पूर्ति हेतु सारी शक्ति व्यर्थ में गवाँ देते हैं।
यह शरीर हमारे जीवन की आधार-जोत का एक प्रतिबिम्ब है, सांसारिक व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन अज्ञानता में रहते हैं, फलस्वरूप वह सारे जीवन की आधार शक्ति से अनजान व बेखबर रहते हैं। वह अपने नश्वर शरीर, उच्च ज्ञान तथा मन के अहंकार की पूर्ति हेतु सारी शक्ति व्यर्थ में गवाँ देते हैं।
यह जीवन एक स्वप्न है- भ्रांति है, मृत्यु एक सत्य व ठोस सच्चाई है, एक नग्न वास्तविकता है।
जाणै नाही मरणु विचारा।।
मनुष्य इन कृपा रूपी वरदानों को प्रेम करता है और सच्चे दानी सतगुरु जी को भूल जाता है क्योंकि अपनी सुविधा के अनुरूप वह मृत्यु की सच्चाई को भुला देता है।
मनुष्य इन्द्रियों के आकर्षण और आनंद तथा अन्य ऐश-ओ-आराम में केवल भौतिक लाभों तथा सांसारिक सुखों की ही प्राप्ति करता है। इस प्रकार वह रूहानियत की दात तथा रूहानी प्रभामण्डल से काफी दूर हो जाता है। इस प्रकार मृत्यु की याद ही केवल हमारा बचाव कर सकती है।
मरणा चीत न आवै।।
माया की मदिरा के नशे में यह नश्वर प्राणी मृत्यु को बिल्कुल भूल जाता है और उसको यह भी मालूम नहीं होता कि वह क्या बातें कर रहा है।
केवल मूर्ख व्यक्ति ही मृत्यु को ध्यान में नहीं रखते।
हमें गिने-चुने श्वास मिले हैं। इस देह की तथा जीवन की अस्थायी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रत्येक दिन सहस्त्रों बहुमूल्य श्वास व्यर्थ में चले जाते हैं। पाँच तत्त्वों से बन इस नश्वर शरीर से मोह करना बिल्कुल ही व्यर्थ है:
जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मानु।।
यह नश्वर शरीर पाँच तत्त्वों- आकाश, पवन, अग्नि, जल व भू से बना हुआ है। मृत्यु के उपरान्त ये पाँच तत्त्व समाप्त हो जाते हैं। तब क्यों न उस अमर आत्म-ज्योति की शरण में रहा जाए, क्यों न प्रभु के सम्पर्वफ में रहा जाए? आत्मा और पदार्थ के बीच एक विवेकपूर्ण अंतर करना ज़रूरी है। तभी उस परम ज्योति से सम्बन्ध जुड़ पाता है और आनंद की अनूभूति होती है।
वे ही आत्माएँ धन्य हैं, जौ सदैव मृत्यु को याद रखती हैं तथा सांसारिक बंधनों व सांसारिक ऐश-ओ-आराम के लिए प्रभु के समक्ष याचनाएँ नहीं करतीं। जितना अधिक कोई मृत्यु को याद रखता है, उतना ही वह अस्थायी भौतिक सुखों से अपने आप को अलग अनुभव करता है, और स्थायी इलाही जोत गुरु व प्रभु में अपने आप को सम्बन्धित अनुभव करता है। इस मरणशील शरीर से जितना अनुराग कम होता है, इससे सम्बन्ध और अधिकार-भावना ज्यों ज्यों कम होती जाती है, उसी अनुपात में प्रभु से अनुराग बढ़ता जाता है।
परो आज के कालि।।
नानक हरि गुन गाइ ले
छाडि सगल जंजाल।।
जा के सम नही कोइ।
श्वास-श्वास प्रभु का सिमरन करना चाहिए। यही हमारे जीवन का आश्रय, उद्देश्य व हमारा वास्तविक जीवन है। जिस प्रकार हम प्राणों के बिना जीवित नही रह सकते, इसी प्रकार हम नाम के बिना भी जीवित नही रह सकते।
अगै लईअहि खोहि।।
नाम ही शाश्वत जीवन का श्वास है। प्रभु का अमर नाम हमारे प्रत्येक श्वास का अविभाजित अंग बन जाए और इन गिने-चुने श्वासों की यह सब से मूल्यवान वस्तु प्रेम रूपी प्रभु की पवित्र स्मृति में ही प्रयोग करनी चाहिए।
जिस ने भी जन्म लिया है, उसका अन्त मृत्यु है। लोक व परलोक में केवल प्रभु का नाम ही सहायक होगा, क्योंकि नाम के सहारे ही हम इस भयानक भव-सागर को पार कर प्रभु के साथ लीन हो सकते हैं।
जीव इस संसार में अकेला ही आता है तथा खाली हाथ अकेला ही चला जाता है। प्रभु का अमृत नाम ही जीव की सहायता कर उसे जन्म व मृत्यु से बचाता है।
मृत्यु को सदैव याद रखने वाला व्यक्ति प्रभु से प्राप्त गिने-चुने श्वासों की सम्पत्ति की दुर्लभता तथा कीमत जानता है। यह कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे धन-दौलत से खरीदा या बेचा जा सकता है।