ईश्वरीय प्रेम और नम्रता के स्वरूप में पुनर्जन्म
बाबा नरिन्दर सिंह जी ने एक बार फरमाया-
पारब्रह्म प्यार ही प्यार है (परमात्मा ही प्रेम है और प्रेम ही परमात्मा है)। श्री गुरु ग्रंथ साहिब (निरंकार) प्रेम स्वरूप है और प्रेम ही श्री गुरु गं्रथ साहिब है।
अब प्रेम किसके साथ करना है। जब निरंकार स्वयं ही धरती पर उतर आए तो फिर श्री गुरु ग्रंथ साहिब के साथ प्रेम किस तरह करना है! जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि श्री गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक (निरंकार) से प्रेम किया। श्री गुरु राम दास जी ने ‘आपि नरायण कलाधार जगु महि परिवरियो’ स्वरूप श्री गुरु अमर दास जी (निरंकार) से शिखस्थ प्रेम किया। श्री गुरु अर्जुन पातशाह ने स्वयं भगवंत स्वरूप गुरु राम दास जी से प्यार किया। अब तो वही ‘प्रत्यक्ष गुरुओं की देह’ श्री गुरु ग्रंथ साहिब (गुरु नानक निरंकार) स्वयं इस संसार में अवतरित हुए हैं, उनके साथ किस तरह का प्रेम करना है।
पास बैठी सारी संगत के सामने एक साधारण मिसाल देते हुए बाबा नरिन्दर सिंह जी ने अपनी बात रखी। सावन का महीना था और वर्षा की झड़ी लगी हुई थी। सारी संगत मालपुओं का भोजन-प्रसाद पा रही थी। बाबा जी ने पूछा कि क्या मालपुए स्वाद दे रहे हैं? तो संगत ने जवाब दिया कि मालपुओं में बहुत स्वाद आ रहा है। अपनी बात को बढ़ाते हुए बाबा जी ने आगे फरमाया- कि क्या आप ही सारे स्वाद ले रहे हैं या मालपुआ भी स्वाद ले रहा है? इस पर संगत ने विनती की कि मालपुए को अपने स्वाद का कैसे पता लग सकता है!
फिर बाबा नरिन्दर सिंह जी ने पूरी संगत को समझाते हुए इस प्रकार फरमाया कि गुरु नानक निरंकार को जितना प्यार किया गया है वह सारा-का-सारा प्रेम, श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भरा हुआ है।
प्रेम तो सभी निरंकार से ही करते है पर क्या निरंकार के हृदय में भी कभी यह इच्छा पैदा हुई कि मैं भी इस प्रेम को चख के देख लूँ और इसका स्वाद स्वयं ले लूँ। बाबा नंद सिंह जी महाराज ने अपनी इच्छा शक्ति से धरती माता के भाग्य जगा दिए और बालपन से ही प्रेम के महान् आदर्श स्थापित करने शुरू कर दिए। किसके साथ? गुरु नानक निरंकार के साथ। कुएँ की मुंडेर पर रात साढे बारह बजे स्नान करके मौत की परवाह न करता हुआ महान् ऋषि सरीखा पाँच साल का एक बालक शेर की तरह मौत और नींद दोनों को ललकारता हुआ उसी मुंडेर पर समाधि लगाए बैठा है। श्री गुरु नानक निरंकार के साथ प्रेम करने वाला वही बालक श्री गुरु ग्रंथ साहिब के साथ ब्रह्मस्वरूपता को प्राप्त हुआ। अपनी छह वर्ष की अवस्था में एक ब्रह्म ऋषि के समान यह घोषणा कर देता है कि निरंकारस्वरूप श्री गुरु ग्रंथ साहिब के प्रति मैं पीठ नहीं कर सकता और न ही सारी उम्र, मैं ऐसा करूँगा। ये एक प्रकार से आदर्श के वे रूप थे जो परमात्मस्वरूप उस महान् बालक ने बाल अवस्था में ही स्थापित करने शुरू कर दिए थे। फिर उन्होंने किस तरह का प्रेम किया, किस तरह का स्वाद चखा। किस तरह का आनंद उठाया, किस तरह के प्रेम की ज्योति जगाई और उसे उजागर किया? यह सब आश्चर्यों का भी आश्चर्य है। (पुस्तक का पहला और दूसरा भाग उसी प्रेम की कुछ झलकियों से भरा हुआ है)। पर कमाल और हैरानी तो इस प्रेम का दूसरा पक्ष है। जहाँ श्री गुरु ग्रंथ साहिब प्रेम का सागर हैं वहाँ नम्रता और गरीबी का भी सागर है, जिसकी कोई थाह ही नहीं और जिसकी थाह तक कोई पहुँच ही नहीं सकता। जो आश्चर्य भरी बात बाबा हरनाम सिंह जी महाराज ने स्पष्ट की, वह इस प्रकार है-
बाबा नंद सिंह जी महाराज सभी दरगाही कृपा, बख़्शिश और शक्तियाँ स्वयं ऊपर से ही लेकर आए थे, पर वे साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब के नम्रता के साँचे में पूरे तौर पर ढले हुए थे। अपने सर्वोत्तम प्रेम के केन्द्र में वे स्वयं ही सबसे महान् और सच्चे प्रेम के रूपाकार थे। उन्होंने अपनी सारी उम्र में अपना एक भी निरंकारी पहलू और शक्ति ज़ाहिर नहीं होने दी। स्वयं परमात्मास्वरूप होते हुए भी उन्होंने अपनी सारी उम्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के एक शिष्य के तौर पर ऐसी विनम्रता और गरीबी में गुजारी जिसकी कोई मिसाल इस धरती पर न तो पहले कभी हुई है और न ही आगे कभी मिलेगी।
यहाँ तक कथन करते-करते बाबा नरिन्दर सिंह जी की भाव विह्वल अवस्था इस तरह की हो गयी थी कि बाबा हरनाम सिंह जी महाराज और बाबा नंद सिंह जी महाराज के प्रेम में डूबी उनकी उज्ज्वल आँखों से प्रेम की नदियाँ बह निकलीं। वहाँ उपस्थिति सारी संगत उनकी प्रेम-अवस्था तथा बाबा हरनाम सिंह जी महाराज व बाबा नंद सिंह जी महाराज के पावन कथन सुनकर धारासार आँसू बहाने लगी। बाबा नरिन्दर सिंह जी उठकर, साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कक्ष में चले गए और कई घंटे तक वहाँ से बाहर नहीं आए।
इस तरह परमात्मा ने स्वयं प्रकट होकर, प्रेम के इस समुद्र (श्री गुरु ग्रंथ साहिब) में तैरकर स्वयं इस विलक्षण अमृत का पान किया।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की सच्ची सेवा, पूजा, भक्ति और प्यार का स्वयं आनंद उठाने के लिए ही परमात्मा ने एक भक्त के रूप में अवतार धारण किया था।
गुरु और सच्चे सिख में प्रेम के संबंध बहुत ही विचित्रा और महान् है। जब एक श्रद्धालु अपने प्यारे गुरु के चरण कमलों में अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर देता है, जीवन का हर श्वास अपने गुरु के निमित्त कर देता है तो वह फिर अपने प्यारे गुरु की पवित्र और प्रिय स्मृतियों में ही हर पल तड़पता है। ऐसी घड़ी में गुरु के प्रेमी का अपने गुरु के साथ मिलाप निश्चित हो जाता है, क्योंकि उस समय गुरु भी अपने सेवक के लिए तड़प रहा होता है। गुरु और एक प्रेमी सिख (शिष्य) के बीच यह प्यार अति विशेष और रहस्यमय होता है।
एक श्रद्धालु अपने गुरु की सेवा सच्चे दिल और आत्मा से करता है। एक समय आता है कि जब गुरु अपने भक्त की सेवा करनी शुरु कर देता है। एक सेवक अपने गुरु के पवित्र चरणों में सीधा लेट जाता है और अपने गुरु की पवित्र चरण-धूलि प्राप्त करना चाहता है। एक समय ऐसा भी आता है जब गुरु अपने सेवक के चरणों में पवित्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है। एक समय आता है जब गुरु अपने प्रेमी सिख के पवित्र चरणों पर अपना मस्तक रखता है। एक प्रेमी अपने प्यारे के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देता है। परन्तु फिर एक समय ऐसा भी आता है, जब प्यारा गुरु अपने प्यारे सेवक को अपना सब कुछ अर्पित कर देता है।
ठाकुर और सेवक, गुरु और सिख, भक्त और भगवान् एक ही रूप है। जब भी परमात्मा इस धरती पर शोभायमान् होते हैं, तो अलग-अलग मनुष्य स्वरूप धारण करके आते हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूपों में अवतार धारण किया। वे आप ही नारायण थे और अपने प्रिय अर्जुन के रूप में नर भी स्वयं ही थे। अर्जुन के सारथि के रूप में सेवा करके नारायण आनंदित होते हैं।
परमात्मा स्वयं ठाकुर और सेवक की आत्मा में विचरता है। असल में दोनों ही एक है। ठाकुर सेवक की और सेवक ठाकुर की पहचान है।
बाबा हरनाम सिंह जी महाराज का इस धरती पर ईश्वरीय प्रकाश धारण करने का उद्देश्य बाबा नंद सिंह जी महाराज को सच्ची नम्रता और प्यार के स्वरूप में उजागर करना था और उनके द्वारा अति उत्तम ‘प्रत्यक्ष गुरुओं की देह’ स्वरूप श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की सच्ची सेवा, पूजा और प्रशंसा की शान को स्थापित करना था।