दिव्य ज्ञान

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आरम्भ में जब सेवक महापुरुष बाबा नंद सिंह जी महाराज के दर्शन करने के लिए उनकी पवित्र कुटिया में जाया करता था तो सेवक को उनके प्रवचन सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त होता रहता था। उस समय मैं कालिज का विद्यार्थी था। तब मेरे हृदय में उन के महान् वचनों की गहरी छाप पड़ी थी। सेवक बाबा जी के वचनों के प्रभावों के दुर्लभ अनुभवों को पाठकों के समक्ष रखना चाहता है। मुझे अपने सामथ्र्य की सीमाओं का अहसास है, अतः मैं उन के महान् वचनों का मूल रस में वृतांत तो नहीं कर सकूँगा, परन्तु फिर भी मैं सुने हुए उन प्रवचनों को अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

एक देश का राजा बड़ा भक्त था। उस की सारी प्रजा एकादशी का व्रत रखती थी। एक बार सन्मुख नामक एक निवासी के घर से धुआँ निकल रहा था। राजा ने उस को अपने दरबार में बुला भेजा तथा उस को एकादशी व्रत न रखने का कारण पूछा। सन्मुख ने बड़ी नम्रता के साथ प्रार्थना की-

“हे राजन! मैं सच्चे गुरु का शिष्य सिख हूँ। उनके पवित्र उपदेश के अनुसार मैंने खाने-पीने व सोने की आवश्यकताओं पर संयम किया हुआ हैं। मैं अपने शरीर को जीवित रखने के लिए अल्प आहार करता हूँ तथा हर समय नाम के पवित्र अमृत में निमग्न रहता हूँ। व्रत रखने के विषय में मेरे सत्गुरु ने कहा है कि सारी बुराइयों से दूर रह कर व्रत रखना चाहिए। इसलिए आदरणीय राजन, जहाँ तक व्रत का सम्बन्ध है, सत्गुरु की महान् कृपा से मैंने सभी दुष्कर्मों से दूर रहने का जीवन भर का व्रत रखा हुआ है। इस व्रत से मेरा तन-मन शुद्ध हो चुका है। मेरे लिए सभी दिन पवित्र हैं। मैं प्रतिदिन यही व्रत रखता हूँ।”

राजा सच्चे ज्ञान की इन बातों को सुन कर बहुत प्रभावित हुआ। राजा ने गुरु जी के विषय में कई अन्य बातें भी पूछीं। सन्मुख ने उसको गुरु नानक देव जी का पवित्र नाम बताया। राजा ने कहा, “क्या उस के भाग्य में भी गुरु जी के दर्शन हैं?” सन्मुख ने कहा कि गुरु जी तो सर्वव्यापी हैं, अन्तर्यामी तथा सब के दिलों को जानते हैं। आपके हृदय में गुरु जी के दर्शनों के लिए तीव्र चाह जाग्रत होनी चाहिए। फिर गुरु जी स्वयं ही दर्शन देंगे।

कुछ समय पश्चात् नगर से दूर वीरान उजड़े बाग में तीन साधु आ कर ठहरे। ज्यों ही वीरान बाग में उनके पवित्र चरण पड़े, शुष्क बाग हरा हो गया। यह एक अनुपम, शान्त सुहावना स्थान बन गया। यह बात राजा तक भी पहुँच गई कि उस के राज्य में तीन साधुओं के ठहरने से शुष्क बाग पुनः हरा-भरा हो गया। राजा को यह भी पता चला कि लोग पंक्ति बाँध कर उन के दर्शनों को जा रहे हैं। सारे राज्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति शेष नहीं रहा, जिसने महान् मुक्तिदाता के दर्शन न किए हों।

राजा के मन में साधुओं की सच्चाई की परीक्षा लेने का विचार आ गया था। उसने अपने दरबार की सबसे आकर्षक और सबसे सुंदर नर्तकियों को साधुओं को लुभाने और उन्हें समर्पणशील बनाने के लिए उनके पास भेजा परन्तु जब ‘काम’ की ये दूतियाँ गुरु नानक साहिब की पवित्र उपस्थिति में पहुँचीं और जब दुर्भावनाओं से भरी इन स्त्रिायों पर उनकी कृपा-दृष्टि पड़ी तो उन स्त्रिायों को अपने भीतर पवित्रता के दिव्य प्रकाश की अद्भुत झनझनाहट अनुभव हुई। ये पतित आचरण वाली स्त्रिायाँ अचानक पवित्रता और सत्य की देवियों में बदल गयीं। इस चमत्कारी परिवर्तन के लिए गुरु साहिब की एक पवित्र दृष्टि ही काफी थी। इसी दृष्टि से उन्होंने कौड़ा राक्षस को देवता बना दिया था और इसी एक दृष्टि से सज्जन ठग जैसे कुख्यात लुटेरे और हत्यारे को संत रूप प्रदान किया था। इसी दृष्टि से दीपालपुर का कोहड़ी नवीन काया पाकर ‘नाम’ की खुशबू बिखेरने लगा था।

ये स्त्रिायाँ फिर राजा के पास गईं, पर वहाँ जाकर उनेंने अपने उस पतित व्यवसाय को त्याग दिया। राजा इन स्त्रिायों के इस अद्भुत, चमत्कारी और आकस्मिक परिवर्तन से बहुत चकित हुआ। तब उसे अपने झूठे अहंकार करने का गहरा पश्चाताप हुआ। वह तत्काल उन महान् संतों के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने के लिए चल पड़ा। उसने अपने साथ उनके लिए योग्य और सम्मानजनक भेंट भी ले लीं।

गुरु जी के चरणों में सारी राजकीय भेंटें अर्पित करते हुए राजा ने बहुत विनम्रतापूर्वक उन्हें स्वीकार करने की प्रार्थना की। सभी सांसारिक ट्टद्धियों-सिद्धियों के दाता महान् गुरु जी ने नम्रतापूर्वक इन सबको अस्वीकार कर दिया, तब राजा ने बहुत विनम्रता से प्रार्थना की कि गुरु साहिब उनके महलों में पवित्र चरण-धूलि डालें और वहाँ भोजन ग्रहण करें। महान् गुरु ने पूछा कि वहाँ दक्षिणा क्या मिलेगी?

राजा ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि सारा राज-पाट हाजिर है। श्री गुरु नानक साहिब-

“राजा कुछ वह दो, जो तुम्हारा अपना है।”

राजा-

“श्रीमन्! सारा ही राज्य मेरा है।”

श्री गुरु नानक साहिब:

“नहीं, नहीं राजा! मैंने कहा है- कुछ अपना दो।”

राजा-

“महाराज, मैं ही तो अपने इस सारे राज्य का शासक और स्वामी हूँ।”

श्री गुरु नानक साहिब-

“नहीं राजन्! तुम्हारे पिता, दादा, परदादा सभी तो इसे अपना राज्य कहते रहे हैं। फिर जिसे तुम अपना कह रहे हो, तुम्हारे पिछले जन्म में तो वह तुम्हारा नहीं था।”

राजा उलझन में पड़ गया। सोचा इस शरीर को ही गुरु जी को अर्पित कर दूँ। इसलिए श्री गुरु नानक साहिब के फिर वही आग्रह करने पर राजा ने कहा-

“यह शरीर तो मेरा है।”

श्री गुरु नानक साहिब ने कहा-

“तुम अपने सभी पूर्व जन्मों से यही ग़लती करते आ रहे हो। तुम अपने को शरीर समझते हो और इससे ही अपना नाता जोड़ते हो जबकि इसे तो तुम्हें छोड़ जाना है। यह खाक का ढेर किस काम का? यह तुम्हारा कहाँ है? कुछ अपना दे सकते हो तुम, तो दो?”

राजा ने उत्तर दिया-

“महाराज यदि यह राज-पाट और यह धन-दौलत मेरा नहीं है तो मेरा मन तो अपना है। मैं इसे आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।”

श्री गुरु नानक साहिब ने कहा-

“राजन्! मन तो तुम्हें नियंत्रित करता है, तुम्हें भटकाता है, तुम्हें सभी दिशाओं में दौड़ाता है। यह तो पूरी तरह तुम्हें काबू किए है। तुम तो अपने बेकाबू मन के दास हो। जो तुम्हारे बस में ही नहीं, उसे तुम अपना कैसे कह सकते हो? तुम कुछ अपना दो।”

तब राजा को चेत हुआ कि नाशवान् शरीर भी उसके राज्य और भौतिक सम्पदाओं की तरह अपना नहीं है। जब शरीर ही उसका नहीं है तो ये सांसारिक चीजें उसकी कैसे हो सकती हैं? उसका मन उसके नियंत्राण में नहीं था बल्कि वही उस का शासन करता था।

Continued ...