दरगाही प्रसाद
पूजनीय पिता जी के शब्दों में-
‘‘एक दिन ऐसा हुआ कि शाम के दीवान के उपरान्त जब मैं परिवार के सदस्यों के साथ बाहर आया तो मुझे बहुत भूख लगी हुई थी। मेरे मन में यह स्फुरण हुआ कि मैं कितना भाग्यशाली होऊँगा यदि मुझे उस थाली में से प्रसाद मिल जायें जिस थाली में बाबा जी श्री गुरु नानक साहिब को प्रत्यक्ष भोग लगाते हैं। मैंने मन में ऐसा सोचा ही था कि सब के दिलों की जानने वालें दयालु अन्तर्यामी बाबाजी ने श्री गुरुनानक साहिब जी को अर्पित किया थाल बाबा ईशर सिंह को पकड़ाते हुए निर्देश दिया कि डिप्टी के पास जाकर यह थाल उन्हें व उनके परिवार के लिए दे दो।’’
श्री गुरुनानक साहिब द्वारा लगाए भोग के एक हिस्से को उस दिन प्रसाद के रूप में ग्रहण करने वाले सौभाग्यशलियों में एक मैं भी था। उस प्रसाद को ग्रहण करना परमात्मा को ग्रहण करने जैसा था। यह प्रसाद मन पर पडे़ अंधेरे और अज्ञान की मोटी परत को मिटाकर उसे जागृत करता है जैसे कि बाबा नंद सिंह जी महाराज कहा करते थे-
‘यह प्रसाद विवेकी प्रसाद है।’