बाबा नंद सिंह जी की पवित्र मर्यादा
तउ नानक मोखंतरु पाए ।।
भाउ भगति का अर्थ है- भावपूर्ण भक्ति। गुरुनानक पातशाह स्वयं भक्ति के रहस्य, भक्ति की युक्ति को प्रकट करते हैं। विनम्रता और निरभिमानता की यह कैसी अद्भुत शान है। भाव पूर्ण भक्ति अमूल्य वस्तु है। यह अति पवित्र उपलब्धि है।
यह पवित्रतम कार्य है, यह दुर्लभ हीरा है और परमात्मा का अनुपम आशीर्वाद है। इसे प्रदर्शन और प्रचार की पहुँच से छिपा कर हृदय रूपी कोषागार की पवित्र गहराइयों में रखना चाहिए। सच्ची प्रेमा भक्ति का अर्थ है- सतगुरु का विशेष प्यार और आनंद। इसका प्रदर्शन करके या सांसारिकता से दूषित कर उसे मलिन नहीं किया जा सकता। भक्ति का अभिप्राय लोगों को या संसार को प्रभावित करना नहीं है।
इस पवित्र मर्यादा में नवधा भक्ति के सभी प्रकार जैसे कि नाम स्मरण, कीर्तन, सेवा आदि अति सुन्दर रीति से जुड़े हुए हैं। लेकिन उनमें से प्रेमा भक्ति सर्वोच्च है।
भुच्चों कलां के महान बाबा हरनाम सिंह जी महाराज की रचनात्मक शक्ति से यह पवित्र मर्यादा बाबा नंद सिंह जी महाराज के सम्पूर्ण जीवन, असीम व अनुपम प्रेम और विश्वास के उदाहरण के रूप में इस धरती पर प्रकट हुई है। इस प्रकार यह मर्यादा परमात्मा की देन है और अनन्त काल तक प्रकाशमान रहेगी।
प्यार में लीन सच्चे प्रेमी सांसारिक सुखों की ओर ध्यान नहीं देते। हमारे परम सतगुरु श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने अपनी जवानी के 26 से भी अधिक साल बाबा बकाला की एक गुफ़ा में अकेले तपस्या तथा भक्ति करते हुए व्यतीत किए। हमारे निरंकार गुरु नानक पातशाह जी ने संसार के विशाल वीरान क्षेत्रों तथा खूँखार जानवरों व आदमखोर राक्षसों से अटे पड़े भयानक जंगलों में अपनी लम्बी प्रसिद्ध उदासियाँ (यात्राएँ) सम्पन्न कीं।
श्री गुरु अमरदास जी ने अपनी वृद्धावस्था का लम्बा समय अपने अत्यन्त प्रिय गुरु अंगद देव जी के पवित्र स्नान के लिए पानी को, उलटे पाँव चल कर, लाने में व्यतीत किए। पूरी तरह परमात्मा के पवित्र चरणों में लीन श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब जी ने हेम कुण्ड साहिब में अद्वितीय साधना, गहरी भक्ति और घोर तपस्या की।
बाबा नंद सिंह जी महाराज ने अपना पूरा जीवन ही वीरान इलाकों, बीहड़ जंगलों, पहाड़ों और एकान्त स्थानों में कठिन तपस्या करते व प्रभु भक्ति में व्यतीत किया।
बाबा नंद सिंह जी महाराज के जीवन और व्यक्तित्व में सभी ईश्वरीय विशेषताओं का समावेश है।
इसका अभिप्राय समझाते हुए उन्होंने फ़रमाया कि भक्त धु्रव एक राजकुमार था, भक्ति रूपी काँटों के रास्ते और जंगलों के कष्टों से गुज़र कर ही भक्त धु्रव को दरगाही फूलों का प्रसाद मिला।
भक्त प्रह्लाद भी राजकुमार थे, तख्तो-ताज के वारिस थे। महलों में रहते हुए भी भक्ति रूपी कंटीलें रास्तो के कष्ट और अवरोध उस बालक को सहने पडे़।
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे।।
आज तक किसी भी प्रेमी को फूलों की सेज पर परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी की विशुद्ध पूजा तथा प्रेम और सेवा को पूर्णतया समर्पित उनका (बाबा नंद सिंह जी महाराज की) पूरा जीवन सारे संसार का मुख श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के चरणों की ओर करने और जोड़ने में लग गया, ना कि अपनी ओर। उन्होंने ‘धन्न गुरु नानक तू ही निरंकार’ महावाक्य को सारे संसार के जीवन का लक्ष्य बना दिया पर स्वयं को उस लक्ष्य का केन्द्र नहीं बनने दिया। सारी दुनिया से केवल गुरु नानक देव जी की ही स्तुति करवाई परन्तु स्वयं की स्तुति का नामो-निशां ही नहीं बनने दिया। (न कोई स्वयं का स्थान बनाया, न कोई अपना स्मारक बनाया अपितु दिवंगत शरीर का जल-प्रवाह करवा के अपना कोई निशान ही नहीं रहने दिया)। उनकी भक्ति का लक्ष्य लोगों को अपने प्रति उन्मुख करना नहीं था, अपितु श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की अमर शान तथा अनुपम पवित्रता का प्रसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में करना था।
उनकी सम्पूर्ण मर्यादा एक श्रद्धालु के पूरे जीवन में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के प्रति भक्ति भाव बनाए रखती है तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के दिव्य प्रकाश और अमर उपस्थिति से सम्पूर्ण संसार को आकर्षित करती है। यह सभी वर्गं के लोगों को संतोष प्रदान करती है और उन्हें लुभाती है। छोटे-बडे़, अमीर गरीब तथा शिक्षित-अशिक्षित को आध्यात्मिक रूप से अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें आनन्द प्रदान करती है।
उन्होंने कभी भी अपने प्रचार अथवा प्रसिद्धि का प्रसार नहीं किया क्योंकि नाम प्रसिद्धि व अपना गुणगान उनके लिए निरर्थक था। इन सब का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था। यह हैरानी की बात है कि प्रचार और प्रसिद्धि के अभाव में भी उन्होंने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की अमर शान को सारे ब्रह्माण्ड में फैलाया। यह अपने आप में एक अलौकिक चमत्कार है। उन्होंने नयी पवित्र संस्कृति, मर्यादा और नयी पावन परम्परा का सूत्रापात किया। एक ऐसी मर्यादा जो वरदान या पुरस्कार प्राप्ति जैसी इच्छाओं से निर्लेप है जिसमें अपने आप के लिए कोई स्थान नहीं है। एक ऐसी मर्यादा जो कामिनी, कंचन, मान-सम्मान, प्रचार-प्रसार जैसे सांसारिक बंधनों से परे है।
उनकी यह पवित्र मर्यादा एक ऐसे पार-उतारू और रक्षक जहाज़ की तरह है जो कि शाश्वत दिव्य ज्ञान, सर्वव्याप्त आध्यात्मिक सम्पदा, समानता और सद्भाव से लबरेज है।
यह मर्यादा सभी सच्चे श्रद्धालुओं के लिए एक उच्चतम आदर्श है। इस मर्यादा में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के प्रति सच्चे वैराग्य, पूर्ण समर्पण, विशेष प्यार, स्तुति और पूजा का तत्व प्रधान है।
स्वयं परमात्मा अपनी सम्पूर्ण रचना सहित इस मर्यादा के आगोश में है। आने वाले समय में श्री गुरु नानक साहिब जी के सौभाग्यशाली बच्चे इस अद्वितीय मर्यादा के विशेष फलों का आस्वादन करेंगे और आनंद उठा पायेंगें।
इस मर्यादा का एक मात्रा उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इस मर्यादा में किसी सांसारिक वस्तु के लिए कोई स्थान नहीं है। चूंकि यह मर्यादा कामना व इच्छा रहित है, इसलिए इस मर्यादा में किसी अन्य पदार्थ व वस्तु के प्रति कोई तृष्णा नहीं है। यह मर्यादा अपने आप में पूर्णतया ईश्वरीय है इसलिए इस मर्यादा को समर्पित प्रत्येक पल दिव्य हो जाता है।
ऐसी स्वर्णिम धारणाओं पर आधारित मर्यादा को मानने और उसका पालन करने वाले संसार के मालिक बन जाते हैं न कि उसके गुलाम।
परगट गुरां की देह श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के चरण कमलों में पूर्ण समर्पण और बलिदान ही इस मर्यादा का उद्देश्य है। इस पवित्र मर्यादा में दिखावा, प्रदर्शन, प्रचार और प्रसिद्धि की कोई जगह नहीं है।
अपने बालपन से ही उन्होंने संसार की सभी कामनाओं पर काबू पा लिया था। एक संत कभी भी सांसारिक वस्तुओं में लिप्त नहीं होता और न ही कभी इन्द्रियों का गुलाम होता है।
इस मर्यादा में वरदानों, कामनाओं और आवश्यकताओं की पूर्ण निवृत्ति होती है।
जिस व्यक्ति के हृदय में उस दातार परम पिता के लिए तड़प है, जिसने उसके प्रेम का रस चख लिया है उसे किसी अन्य वस्तु की लालसा नहीं रहती। ऐसी दिव्य आत्मा के लिए, परमात्मा से ध्यान हटा कर स्कूल-कालेज, अस्पताल या लंगर चलाना, डेरे व भवन निर्माण कराना, स्व प्रचार-प्रसार या प्रदर्शन करना पूर्णतया अर्थहीन/महत्त्वहीन है।
बाबा नंद सिंह जी महाराज के लिए जगत् गुरु नानक पातशाह से प्रेम की तुलना में मोक्ष और तीनों लोकों की प्राप्ति कोई मायने नहीं रखती थी। इसलिए वह पूर्णतया संयमित और संसार से अनासक्त थे।
पाँच वर्ष की छोटी-सी उम्र से ही वे गुरुनानक साहिब जी के दिव्य प्रेम की सर्वोच्च अवस्था में लीन थे। उनका निश्चय दृढ़ था। ऐसा दृढ़ निश्चय धरती पर पहले कभी देखा ही नहीं गया था।
छोटी सी उम्र में ही इस बाल रूपी भगवान का ऐसा दृढ़ निश्चय था।
उन्होंने छोटी-सी उम्र में ही सब कुछ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के पवित्र चरणों में त्याग दिया था। एक महान ऐतिहासिक युग की शुरुआत होनी अभी बाकी थी।
संसार में सभी सजीव और निर्जीव परमात्मा के आश्रय में स्थित हैं। संसार तो केवल परमात्मा की परछाई है, प्रतिबिम्ब है। उनके महान नियम संसार की इस परछाईं या प्रतिबिम्ब के सम्बन्धों से नहीं जुड़े हैं अपितु उन महान नियमों का एक मात्रा सम्बन्ध तो वास्तविक मूल तत्व परमात्मा से था।