गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै - पवित्र नाम के चमत्कार
एक बार की बात है कि छोटे ठाठ (कुटिया) में सायंकाल के दीवान की समाप्ति हो चुकी थी। बाबा जी अपने आसन से उठकर अपने नम्र स्वभाव के अनुसार संगत से अलविदा कह कर उठ कर चल पड़े। जब बाबा जी बाहर आए तो मेरे पिता जी ने कपड़े के स्लीपर डालने के लिए उनके चरणों के आगे रख दिए। बाबा जी ने स्लीपर पहनते समय अपना एक हाथ उनके कंधे पर रख दिया। बाबा जी की खुली कलाई मेरे पिता जी के कानों को छू गई। मेरे पिता जी के कानों को बाबा जी के रोम-रोम से ‘वाहे गुरु’ ‘वाहे गुरु’ की सुरीली ध्वनि सुनाई दी। यह ध्वनि उनके रोम-रोम से गूँज रही थी। मेरे पिता जी की आत्मा को नाम महारस का अनोखा आनंद आ रहा था।
अति शारीरिक समीपता, बाबा जी द्वारा पवित्र हाथ, पिता जी के कन्धे पर रखने, बाबा जी की कलाई का पिता जी के कान से लेशमात्रा छू जाने से तथा बाबा जी की कलाई से, प्रत्येक रोम से ‘वाहे गुरु’ ‘वाहे गुरु’ नाम की सुरीली ध्वनि सुनाई देने से मेरे पिता जी भी उन्मादक आनंद की स्थिति में आ गए। बाबा जी के विश्व नूर वाले शरीर के रोम-रोम से अमृत नाम की ध्वनि पिता जी के हृदय में निवास कर गई तथा उनका तन-मन आध्यात्मिक आनंद से भर गया। मेरे पिता जी लड़खड़ा गए, गिरने ही लगे थे कि बाबा जी ने सहारा दे दिया। इस प्रकार अपने हृदय में पूर्ण प्रकाश व अमृत नाम के रस से भरने से पिता जी ने बाबा जी की ओर कृतज्ञता से देखा। बाबा जी ने उन पर अपनी कृपा-दृष्टि से कई अद्भुत अन्य आशीर्वाद दिए। बाबा जी शरीर के रोम-रोम से सुनाई देने वाली अमृत-नाम की ध्वनि मेरे पिता जी के हृदय व आत्मा में गहरी उतर गई थी। इस अमृत-नाम की ध्वनि ने उनके जीवन में असीमित कृपाएँ की थीं।
मेरे पिता जी ने इस अद्भुत अनुभव के विषय में मुझे बताया था कि बाबा जी के शरीर के रोम-कूपों में से अमृत-नाम की दिव्य ध्वनि सुनने से उनको नाम-रस, आत्मा-रस तथा प्रेम रस की असली अनुभूति हुई थी। उनको ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उन्होंने अमृत नाम के खजाने को प्राप्त कर लिया हो, जैसे कि उन्होंने नाम-रस के सागर में स्नान कर लिया हो। पिता जी यह कहा करते थे कि नाम की मूत्र्त बाबा नंद सिंह जी महाराज तथा उनका पवित्र व्यक्तित्व अमृत नाम का विश्व रूप था। बाबा जी की पवित्र देह के सात करोड़ रोम जीवन भर पवित्र नाम का निरंतर जाप करते थे।
जैसे ऊपर कहा गया है कि बाबा नंद सिंह जी महाराज की देह का प्रत्येक रोम अमृत नाम का जाप कर रहा था, यह एक अलौकिक चमत्कार था। यह प्रभु के अमृत नाम का गुप्त जप था, जिसको अन्य कोई नहीं देख सकता और न ही सुन सकता था। यह मनुष्य शरीर में परम सत्य का आश्चर्यजनक व पूर्ण खेल हो रहा था। उनका पाँच तत्त्वों का शरीर अमृत नाम की मूत्र्त अभिव्यक्ति था, यह परम सत्य व निरंकारी ज्योति का शरीर अमृत नाम की मूत्र्त अभिव्यक्ति था, यह परम सत्य व निरंकारी ज्योति का अविभाजित अंग था। उनका पवित्र शरीर सभी जीवों के लिए प्रभु कृपा का ड्डोत था। बाबा नंद सिंह जी महाराज का परमात्मा रूपी व्यक्तित्व इलाही नूर से चमकता था। उनके रोम-कूपों से रूहानी किरणें निकलती थीं। यही किरणें मेरे पिता जी के मार्ग को ज़िन्दगी भर प्रकाशमान करती रही थीं। बाबा नंद सिंह जी कलाई के रोम-रोम से सीधी प्राप्त सुरीली ध्वनि मेरे पिता जी के हृदय में जीवन भर गंुजायमान रही। यह कृपा मंगलमयी थी। नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् उन का ध्यान, मन, सोच व उनकी आत्मा अपने प्रिय बाबा जी का ही सिमरन करती थी। बाबा जी का प्रत्यक्ष दर्शन करने की तीव्र भावना व प्रबल अभिलाषा से वे ईश्वरीय प्रेम के मतवाले बने रहे। बाबा जी के समक्ष उन की एक ही प्रार्थना होती थी। उनकी एकमात्रा माँग बाबा नंद सिंह जी महाराज स्वयं थे। उन्होंने सब ओर से अपना ध्यान हटा लिया था तथा उनके भीतर बाबा जी के लिए तीव्र इच्छा थी। बाबा जी के प्रेम के समय उन को सम्पूर्ण विश्व तुच्छ प्रतीत होता था। अपने प्रिय बाबा जी से बिछुड़ने के समय बुरी तरह रोए थे। जब उन्होंने इस शारीरिक बिछुड़न को और सहन न कर सकने के कारण इस बिछुड़न से बेहतर मृत्यु का निर्णय ले लिया तो बाबा जी ने साक्षात् दर्शन देने की कृपा की थी।
प्रभु-दर्शन की भूख व भौतिक वस्तुओं की भूख दोनों एक स्थान पर इकट्ठी नही हो सकती। प्रभु का प्रेमी सांसारिक वस्तुओं व इन्द्रियों के स्वादों की प्रभु से याचना नहीं करता। वह इन पदार्थों के स्थान पर सिर्फ प्रभु-प्राप्ति की ही अभिलाषा रखता है। वह तन, मन, धन को एक किनारे रख कर अपने प्रिय प्रभु के ध्यान में आनंद मग्न रहता है। अमृत नाम की महान् शक्ति जिज्ञासु के तन व आत्मा के भीतर निरंकारी ज्योति का प्रकाश करती है। यह शक्ति उस के हृदय को अमृत रस से लबालब भर देती है। इस नाम-रस के धारक जिज्ञासु का यश सब ओर सुगंधि, की तरह पैफल जाता है। बाबा नंद सिंह जी महाराज के नाम की महिमा युगों तक पैफल रही है।
उन्होंने बाबा जी से प्रेमा भक्ति का वरदान माँगा था। उन्होंने प्रेम के दाता स्वामी बाबा जी से प्रेम की दात माँगी थी। उन्होंने किसी सांसारिक पदार्थ, यहाँ तक कि मुक्ति की कामना भी नहीं की थी।
वे दैवी प्रेम के सागर में निवास करते थे तथा उनका जीवन प्रेम की जलती मशाल था। जो कोई भी उनसे मिलता था, उसके भीतर बाबा नंद सिंह जी महाराज के प्रेम का आकर्षण अंकुरित हो जाता था। बाबा जी के प्रति यह निर्मल प्रेम उनके जीवन का मुख्य गुण, वास्तविक सुन्दरता तथा आभा थी, जो उनके नूरानी चेहरे पर चमकती रहती थी।
दिव्य प्रेम एक अदम्य एवं अवर्णनीय भगवद्-प्राप्ति की कामना है, जिसका अनुभव सच्चे प्रेमियों को ही होता है। यह ‘प्रभु ही प्रेम है तथा प्रेम ही प्रभु है’ की कहावत की सच्चाई में दृढ़ विश्वास रखने वाला एक अलौकिक रहस्यमय अनुभव है।