गृहस्थ मार्ग
बाबा नंद सिंह जी महाराज भले ही सारी उम्र यती-सती रहे किंतु दूसरों को उन्होंने हमेशा गृहस्थ जीवन में रहने का उपदेश दिया। संसार के सभी महान् त्यागियों के वे भले ही शहंशाह थे, तो भी उन्होंने दूसरों को अपने काम-काज करते हुए सच्चाई, पवित्रता और ईमानदारी से रोजी-रोटी कमाने का उपदेश देकर संसार-पथ पर चलने की प्रेरणा दी। बाबा नंद सिंह जी महाराज ने एक बार एक साखी सुनाई-
दशमेश पिता श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज का दरबार सजा हुआ है। वानप्रस्थियों की एक टोली वहाँ पहुँची। बड़े सत्कार के साथ उन्हें वहाँ बिठाया गया। दीवान के बाद उन्होंने कलगीधर पातशाह से एक प्रश्न किया-
सच्चे पातशाह ने फरमाया-
सच्चे पातशाह ने उनसे कहा कि रात को यहाँ विश्राम करें। इस विषय पर शेष बातें कल करेंगे।
ब्रह्म मुहूर्त में ही ‘आसा दी वार’ का पाठ कीर्तन शुरु हो गया। सभी सिख, माई, भाई सारी संगत इलाही कीर्तन में लीन बैठी है। कई घंटो के बाद भोग पड़ा। चारों तरफ से संगते अपने घरों से प्रसाद को सिर पर उठाए आ रही हैं। गुरु वानप्रस्थियों से पूछते हैं-उनकी ओर से उत्तर मिला-
इस पर गुरु गोविन्द जी ने फरमाया-
फिर फरमाया कि उन सिखों को देख रहे हो जो संगतों के लिए अपने घरों से ‘प्रसादे’ ला रहे हैं। ये तो अपना धन भी गुरु को अर्पित किए बैठे हैं।
फिर आगे फरमाया-
गुरु साहिब जी ने फ़रमाया-
उन चिपियों की लाख पिघलायी गयी तो उनमें से अशरफ़ियाँ निकली। सच्चे पातशाह ने उन्हें देखते हुए पूछा-
इस पर उनका गुरु बोला,
अन्तर्यामी गुरु साहिब कहने लगे कि आपके भगवे चोले इतने भारी क्यों लग रहे हैं? इतना सुनते ही वानप्रस्थी घबराए और सिखों ने देखा कि उन भगवे चोलों की तहें पैसे भरकर सिली गई हैं। मुक्तिदाता, ब्रह्मज्ञान के प्रकाश स्वरूप और अज्ञानहर्त्ता दसवें गुरु नानक श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने फिर अपने शुभ मुखारविन्द से इस तरह ज्ञान-अमृत की वर्षा की-
वानप्रस्थियों के गुरु को सम्बोधित करते हुए दसवें पातशाह ने फिर फरमाया, कि तेरे सेवकों को तुझ पर कोई भरोसा नहीं और तुम्हें परब्रह्म परमेश्वर पर कोई भरोसा नहीं। दशमेश पिताजी फिर उनसे पूछते हैं; तो फिर सन्यासी कौन हुआ? ये गृहस्थी वास्तविक रूप में सन्यासी हैं।
बाबा नरिन्दर सिंह ने बाबा जी की साखी सुनाते हुए आगे फरमाया, कि ऐसे महान् गुरु के ऐसे प्यारे सिखों के चरणों में मुक्ति इधर-उधर भटकती फिरती है।
आदरणीय भाई रतन सिंह ने बताया कि बाबा जी की सेवा करते-करते मेरे और नत्था सिंह के दिल में यह ख़याल आया कि अच्छा है कि बाबा जी की सेवा ही करते रहें, विवाह करके जंजाल में क्यों पड़े? अन्तर्यामी बाबा जी के पास हम दोनों ही खड़े थे, उन्होंने इस तरह फरमाया-