भिक्षा न माँगना
बाबा जी ने कभी भिक्षा नहीं माँगी थी, न ही उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ ही पैफलाये थे। वे अपने दैवी आनंद में कहा करते थे कि फकीर तो दाता होते हैं, भिखारी नहीं। इस प्रकार गुरु का सच्चा सिख भी दाता हाता है। सच्चे संत सदैव आशीर्वाद बाँटते हैं, माँगते नहीं। उन की हथेली सदा आशीर्वाद देने के लिए नीचे रहती है। अगर वह माँगने के लिए हथेली ऊपर की ओर करे तो वह भिखारी है। इस विचार को बहुत स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक बार कहा कि अगर कोई सेवक, यात्राी या श्रद्धालु किसी संत को पाँच सौ रुपये दे दे और वह लेकर अपनी जेब में रख ले तो फिर दोनों में विरक्त कौन हुआ? इससे स्पष्ट है कि जिस गृहस्थी या सेवक ने पैसे दिए हैं, वही विरक्त हुआ। जिस संत ने वह धन-राशि अपनी जेब में रख ली, उसने माया के एक रूप का उपयोग कर लिया है। माया के दो रूप हैं- कामिनी व कंचन। यह एक सिक्के के दो पहलू हैं। माया स्वीकार करना, स्वयं अपने पास रखना तथा इस का उपयोग करना माया का एक रूप हैं यह कंचन है। इसका दूसरा अभिन्न रूप कामिनी है। उस सेवक की पत्नी, बहिन या पुत्राी के रूप में कामिनी भी उस संत के सामने विद्यमान होती है, जो संत माया का लोभी है, वह औरत के विषय में दुर्भावनाओं से कैसे बच सकता है।
एक संत व सच्चे सिक्ख का जीवन रूहानियत से भरपूर होता है। वह नाम के रस की दौलत के साथ भरपूर व्यक्ति ही दाता है, भिखारी नहीं। जिस प्रकार प्रभु अपने अनन्त भण्डार से सब को यह वरदान बाँटता हैं, उसी प्रकार उसके प्रिय संत व सिख नाम-अमृत की तरह दुर्लभ वस्तु सब को बाँटते हैं, वह इसके लिए कोई धन्यवाद भी नहीं चाहते। प्रभु कभी इन आशीर्वादों को बाँटते हुए थकता नहीं है। इसी प्रकार उस का सच्चा सिख प्रभु-कृपा का सार्वकालिक दाता होता है।